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उद्वे॑ति प्रसवी॒ता जना॑नां म॒हान्के॒तुर॑र्ण॒वः सूर्य॑स्य । स॒मा॒नं च॒क्रं प॑र्या॒विवृ॑त्स॒न्यदे॑त॒शो वह॑ति धू॒र्षु यु॒क्तः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud v eti prasavītā janānām mahān ketur arṇavaḥ sūryasya | samānaṁ cakram paryāvivṛtsan yad etaśo vahati dhūrṣu yuktaḥ ||

पद पाठ

उत् । ऊँ॒ इति॑ । ए॒ति॒ । प्र॒ऽस॒वी॒ता । जना॑नाम् । म॒हान् । के॒तुः । अ॒र्ण॒वः । सूर्य॑स्य । स॒मा॒नम् । च॒क्रम् । प॒रि॒ऽआ॒विवृ॑त्सन् । यत् । ए॒त॒शः । वह॑ति । धू॒र्षु । यु॒क्तः ॥ ७.६३.२

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:63» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - वह परमात्मा (जनानाम्) सब मनुष्यों का (प्रसविता) उत्पादक (महान्) सबसे बड़ा (केतुः) सर्वोपरि विराजमान (अन्तरिक्षस्य) अन्तरिक्ष तथा (सूर्यस्य) सूर्य्य के (समानम्, चक्रं, परि, आविवृत्सन्) समान चक्र को एक परिधि में रखनेवाला है (धूर्षु) इनके धुराओं में (युक्तः) युक्त हुई (यत) जो (एतशः) दिव्यशक्ति (वहति) अनन्त ब्रह्माण्डों को चालन कर रही है, वह सर्वशक्तिरूप परमात्मा (उद्वेति) संयमी पुरुषों के हृदय में प्रकाशित होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वोपरि वर्णन करते हुए यह वर्णन किया है कि सबका स्वामी परमात्मा जो सम्राट् के केतु झंडे के समान सर्वोपरि विराजमान है, वह सूर्य्य, चन्द्रमा, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष आदि कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों को रथ के चक्र के समान अपनी धुराओं पर घुमाता हुआ सबको अपने नियम में चला रहा है, उस परमात्मा को संयमी पुरुष ध्यान द्वारा प्राप्त करते हैं ॥ जो लोग वेदमन्त्रों को सूर्यादि जड़ पदार्थों के उपासन तथा वर्णन में लगाते हैं, उनको इस मन्त्र के “सूर्य्यस्य” पद से यह अर्थ सीख लेना चाहिए कि वेद सूर्य्य के भी सूर्य्य को सूर्य्य नाम से कहता है, इसी अभिप्राय से इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में परमात्मा को मनुष्यों का सूर्य्य और इस मन्त्र में उसको भौतिक सूर्य्य का चलानेवाला कहा है, इसी भाव को लेकर केनोपनिषद् २।२। में “चक्षुषश्चक्षुः” उसको चक्षु का भी चक्षु कथन किया है अर्थात् वह परमात्मा सूर्य्य का सूर्य्य, प्राण का प्राण तथा चक्षु का चक्षु है, या यों कहो कि सूर्य्य, प्राण और चक्षु आदि अनन्त नामों से उसी का वर्णन किया गया है, इसलिए परस्पर विरोध नहीं ॥२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - स परमात्मा (जनानाम्) सर्वप्राणिनां (प्रसविता) जनयिता (महान्) ब्रह्मरूपः (केतुः) ध्वजमिव सर्वोपरि विराजमानः, (अर्णवः) अन्तरिक्षस्य (सूर्यस्य) सूर्यमण्डलस्य च यत् (समानम्) एकं (चक्रं) मण्डलाकारं (पर्याविवृत् सन्) चालयितुमिच्छन् सन् (धूर्षु) एषां मध्यभागे (युक्तः) संलग्ना (यत्) या (एतशः) दिव्यशक्तिः (वहति) अनन्तब्रह्माण्डान् सञ्चालयति, तस्याः स्वामी सर्वशक्तिमान् परमात्मदेवः (उद्वेति) संयमिनां दमिनां जनानामन्तःकरणेषु भक्तियोगेन आविर्भवतीत्यर्थः ॥२॥